अनुभूति में
सुनील कुमार
श्रीवास्तव की
रचनाएँ -
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प्लास्टिक युग के मनुष्य
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स्कूल जाते बच्चे का प्रेम-गीत
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प्लास्टिक युग के
मनुष्य
जब बाहर सडकों पर
लथपथ बोसीदा कमीजों में हांफते हुए
बसेरों को लौटते लोगों की रेलमपेल
धुवें की कालिख से स्याह चेहरे
और तापमान अभी भी चालीस डिग्री सेल्सिअस,
महानगर के पोशीदा गलियारों में उन्हीं लम्हों
एक और शाम किसी खूबसूरत उनवान में लिपटी हुई,
जमी हुई खुशगवार सर्द हवाओं की खुशबूदार धुन फिजां में,
और प्लास्टिक युग के महान मनुष्यों के
देह के दरकते हुए खालीपन
इत्मीनान की तर चुस्कियों से लबरेज....
वक़्त रोएँदार तितलियों की तरह उड़ता हुआ.
सहन में हर तरफ
रंगदार प्लास्टिक में ढलीं कुर्सियां और मेजें
प्लास्टिक के फर्न, फूलों और कैक्टस से सजी हुई,
सिंथेटिक खुशबुओं से लबरेज,
लोगों के तराशदार चेहरे सुतरे हुए,
हिसाब से उठती और झुकती हुई आँखें, न कम न बेश,
प्लास्टिक की खूबसूरत कतरनों की मानिंद
करीने से जुड़े हुए सम्बन्ध,
भाषा आइसक्रीम के कतलों की तरह रखी यहाँ-वहाँ
कि सारा कुछ पहले से लिखित होना ही
उन पोशीदा गलियारों के महान साम्राज्य में
दाखिल होने का अधिकार-पत्र !
तयशुदा भंगिमाएँ,
तयशुदा संवाद,
देह के तयशुदा उतार-चढ़ाव और ख़म,
सब कुछ प्लास्टिक के ढले हुए सांचों की तरह
सुन्दर, तराशदार और डिस्पोजेबल,
प्लास्टिक युग के महान मनुष्य की महान ईजाद !
४ अक्तूबर २०१०
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