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अनुभूति में सुनील कुमार श्रीवास्तव की रचनाएँ -

छंद मुक्त में-
जड़ें
प्लास्टिक युग के मनुष्य
यात्रा
स्कूल जाते बच्चे का प्रेम-गीत

 

जड़ें

हम अपनी दुखती जड़ों को
उस उफनती ज़मीन पर छोड़ आए हैं
जिसके ज़र्रों ने समेट रखा है
हमारे हिस्से का वह पुरसुकून आँगन
और आँगन में एक चारपाई भर खिली धूप !

चाय की प्याली से उठती भाप की तरह
गर्म तासीर वाली उम्दा यादों से
जड़ें छिपकली की तरह चिपकी हैं !

जो हमने बमुश्किल हासिल कीं
हमारी उँगलियों में
दरख़्त की वे खुरदुरी टहनियाँ
अब कसमसा रही हैं,
रूई के गर्म फाहों की तरह सेंकने वाली
रिश्तों की सारी सांस
इनमें से उड़ चुकी है !

हम इन टहनियों को मोड़कर
उनके समेत फिर से
जड़ों में बहना चाहते हैं
जड़ों से हम छूटना नहीं चाहते
टहनियाँ हमसे छूटती नहीं हैं
हमारी सारी ज़द्दोज़हद इसी को ले कर है !

४ अक्तूबर २०१०

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