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महारण्य में सीता
लोहे के पुतले

 

महारण्य में सीता

माँ इस महारण्य में
जहाँ दुःख, लज्जा और क्रोध से संतप्त मन
और गर्भ में आकार लेते
शिशुओं के अलावा कोई और साथ नहीं
तुम याद आती हो
तुम्हे
जिसे भुला दिया है सभी ने
इन सारे समयों में
हाशिए पर भी कहीं मौजूद नहीं तुम
क्यों कि जननी नहीं तुम
नहीं सींचा खुन से तुमने मुझे

पुत्र नहीं मैं
रचे नहीं गए
मेरी क्रीड़ाओं के गान
मेरा
शिव धनुष से खेलना
बस एक अनहोनी घटना भर थी
पिता के मन में उम्मीद जगाती
श्रेष्ठ दामाता की
पिता द्वारा स्वयंबर की घोषणा पर
पलक की कोर में आँसू छिपाती
तुम्हारी वह छवि..
ससुराल भेजते समय
एक अनजाने भय से कंपित
तुम्हारी मुस्कान
हर पल अपने आँचल में
मुझे छुपा लेने की तुम्हारी चाह...

कहते हैं माँ का मन आइना होता है
दाने क्या तो देख लिया था माँ तुमने...

मेरी इस अवस्था में
तुम्हारी स्मृतियाँ ही तो संबल हैं माँ...

सौन्दर्य और पीड़ा से परिभाषित इस जीवन में
माँ, अब जब कोई यहाँ साथ नहीं
तुम याद आती हो पृथ्वी सी
जिस पर कदम रख हम खड़े होते हैं
मानो खड़े हों अपने दम पर....

२१ मई २०१२

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