अनुभूति में
सुमन केशरी की रचनाएँ- छंदमुक्त में-
औरत
बा
बा और बापू
महारण्य में सीता
लोहे के पुतले
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औरत
घड़ी की सूई-सी होती है औरत
पीछे नहीं बल्कि कुछ आगे ही दौड़ती हुई
मस्तिष्क का अलार्म
घड़ी से मिनटों पहले ही बज जाता
जाने किस मेक की बनी होती है औरत
कितनी भी अकड़ी हो देह
छह बजते न बजते तन जाती है सीधी
सवा नौ बजे तक घर बाहर को संतुलित करती
टिक टिक चलती चली जाती है
पौने तीन बजे तक
जैसे सुबह छह से नौ बजे तक का समय भागता है
फर्र..फर्र..
सर्र...सर्र..
और अंतस बहिर्मुखी होता जाता है पल पल
उसी तरह अपराह्न तीन से छह बजे तक
पक्षी सा मन पेड़ की छाँव ढूंढने को व्याकुल
तने तने फुदकता रहता है
आधी धरती को नापती-फलाँगती
औरत छह बजे फिर खड़ी होती है
वहीं जहाँ वह सुबह खड़ी थी
दस दस पर बाँहे फैलाए अपने सौंदर्य को
निहारती औरत एक सपना बुनती है अपने इर्द-गिर्द
और बारह बजते न बजते
अपने को सपनों सहित एक थैली में भर कर
खूँटी पर टँग जाती है औरत
सुबह पुनः जन्म लेने को....
(याज्ञवल्क्य से बहस से)
२१ मई २०१२
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