अगहनी धान
उगी है खेतों में अगहनी धान
झूमती हैं सुनहली बालियाँ
हवा के हर इशारे पर
देख दूर तक फैली
स्वर्णिम आभा को
ठहर जाता है हर पथिक
ठण्डी करना चाहता है आँखें
चखना चाहता है एक दाना
विहगों का दल भी आया है
झुण्ड के झुण्ड उतरते हैं
सारा दिन तिरकर
मिटा लेना चाहते हैं-भूख
मूषकों की बन आयी है
दिन रात ढो-ढो कर
भर रहे हैं घर
कर देना चाहते हैं-व्यवस्था
सात पुश्तों के खाने की
गाँव-टोले के बच्चे
आते हैं दबे पाँव
दो तीन करते हैं पहरेदारी
शेष हो जाते हैं रत
चौर्य कर्म में
पा किसी की टोह
हो जाते हैं नौ दो ग्यारह
कृषक भला क्या पीछे रहेंगे
तृप्त हो जाते हैं सूँघकर ही
देते धरना
दिन औ रात
इसकी मदमाती गंध से
हो गये हैं मस्त।
२६ जनवरी २०१५ |