आदमी
नफ़रत का भाव ज्यों-ज्यों खोता
चला गया
मैं रफ़्ता-रफ़्ता आदमी होता चला गया।
फिर हो गया मैं प्यार की गंगा
से तरबतर
गुज़रा जिधर से सबको भिगोता चला गया।
कटुता की सुई ले के खड़े थे
जो मेरे मीत
सद्भावना के फूल पिरोता चला गया।
सोचा हमेशा मुझसे किसी का
बुरा न हो
नेकी हुई दरिया में डुबोता चला गया।
जितना सुना था उतना ज़माना
बुरा नहीं
विश्वास अपने आप पर होता चला गया।
अपने से ही बनती है बिगड़ती
है ये दुनिया
मैं अपने मन के मैल को धोता चला गया।
उपजाऊ दिल हैं बेहद मेरे शहर
के लोग
हर दिल में बीज प्यार के बोता चला गया।
सब दुख भोगते रहे सुख की तलाश
में
मैं दुख में भी आराम से सोता चला
1 अगस्त 2006
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