अनुभूति में
शंभु चौधरी की
रचनाएँ -
छंद मुक्त में-
निःशब्द हो जलता रहा
मानव अधिकार
मैं भी स्वतंत्र हो पाता
श्रद्धांजलि
हम और वे
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हम और वे
हम" अपने को कहते हैं 'मानव'
"वे" भी तो हैं 'मानव'!
परन्तु हम उसे मानव नहीं मानते;
उसे अपनाएँ, यही सत्य है।
ईश्वर भी यही है।
अज़ान या घंटे की आवाज़ से ईश्वर नहीं मिलते,
ईश्वर न तो गिरजाघरों में रहते हैं,
न ही गुरुद्वारा, मस्जिद, मंदिर में,
यह तो बस बसा है हमारे-आपके हृदय में,
कैद हो गया है हमारा हृदय,
जो चारदीवारी के बीच खोजते है ईश्वर को,
पूजा उसकी करो जो दीन है,
वे दीन नहीं,
भूखे, नंगे और लाचार हैं या अशिक्षित हैं,
उनकी सेवा ऐसे करो, कि वे इनसे मुक्त हो सके,
अपने दान से उनके जीवन को बदलने का प्रयास करें।
वे दीन नहीं,
उनके हृदय में बसा "हृदय"
स्वच्छ व संतुष्ट है।
भूखे-नंगे-अनपढ़ तो हम हैं;
न तो हम स्वच्छ हैं, न ही संतुष्ट,
मानव से मानव की दूरियों को बढ़ाते चले जा रहें हैं।
उनको देखो!
वे कैसे एकत्रित हो नाच-झूम-गा रहें,
परन्तु हम एक कमरे में सिमटते जा रहे हैं
हमारी दूरी तय नहीं,
और वे दूरी को पास आने नहीं देते।
देखो! उनको ध्यान से देखो, और कान खोल कर सुनो!
उनकी तरफ ध्यान दो!...
'सूर्य की किरणें, बादलों का बरसना...
हवा का बहना, खेतों का लहलहाना...
पक्षियों का चहकना, चाँद का मुस्कराना...
मिट्टी की खुशबू, वन की लकड़ी, वंशी की धुन...
सब उनके लिए है, हमारे पास क्या है?
सिर्फ़ एक मिथ्या अधिकार कि हम 'मानव' हैं
तो वे क्या हैं? - जानवर?...
नहीं! वे भी मानव हैं, पर...
हम उनके साथ जानवर-सा करते हैं सलूक,
कहीं धर्म के नाम पर, कहीं रंग के नाम पर,
कहीं वर्ण के नाम पर, कहीं कर्ण के नाम पर,
यह सब शोषण है, इसे समाप्त करना होगा,
इसके लिए हमें लड़ना होगा
१७ नवंबर २००८
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