अनुभूति में
सुनीतिचंद्र मिश्र की रचनाएँ-
तीन होली गीत-
एक होली और
बसंत
होली
अन्य रचनाओं में-
बोधिवृक्ष
तुम
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बोधिवृक्ष
ढलने को सूर्य हुआ आतुर,
जनपद खो रहे वहाँ मग में।
मन्दिर में अब घंटियाँ बजीं
उडुगण लो चमक रहे नभ में
भिक्खूगण नीरव प्रांगण में
तेरी प्रतिमा पर सिर टेके
कुछ माँग रहे हैं आत्मज्ञान
जाने पहचाने अनदेखे
वट का विशाल यह कल्पवृक्ष
अब धूप दीप से सजा हुआ
उड़ती हैं गंध हवाओं में
मन में प्रदीप सा जगा हुआ
मैं आत्म भोर गंभीर हुआ
इस बोधिवृक्ष को हेर रहा
भावों के रॅंगे हुए कर से
चिन्तन की माला फेर रहा
रोया होगा उस दिन राहुल
होगी यशोधरा म्लान कभी
पर कुहा फटी होगी सहसा
अज्ञान निशा की यहाँ तभी
अभिज्ञान प्रदीप जला होगा
जब यशोधरा सोई होगी
उसदिन हॅंसती होगी दुनिया जब
वह मुँह ढॅंक रोई होगी
थी धन्य तुम्हारी दूरदृष्टि
जो खींच यहाँ लाई तुझको
वह मोहभंग अभिवंद्य सदा
जिसने कर दिया बुद्ध तुझको
देने भविष्य को हास विपुल
दो बूंद अश्रु जो पीते हैं
वे ही गौतम बन जाते हैं
मरकर भी रहते जीते हैं
फिर जहाँ कहीं वे बैठ गए
वह ठौर अमर हो जाता है
प्रत्यक्ष मुझे देखो प्रमाण
यह बोधिवृक्ष बतलाता है
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