याद
वैशाख के दोपहर में
इस तरह कभी छाँह नहीं आती
प्यासी धरती की प्यास बुझाने
न ही आते हैं इस तरह शीतल फुहारों के साथ मेघ
इस तरह शमशान में शांति भी नहीं आती
मौत का नंगा तांडव करते
इस तरह अचानक शरद में शीतलहरी भी नहीं आती
कलेजा चाक कर दे इंसान का हमेशा के लिए
ऐसा ज़लज़ला भी नहीं आता इस तरह चुपचाप
जिस तरह आती है तुम्हारी याद
उस तरह कुछ भी नहीं आता।
२२ मार्च २०१० |