अनुभूति में
आर पी शुक्ल की रचनाएँ-
छंद मुक्त में-
किराये के कंधे
पाँव के निशाँ
प्रतीक्षा के तीन युग
अंजुमन में-
अपनी किस्मत
छोड़कर गाँव
हाइकु में-
दस हाइकु |
|
प्रतीक्षा के तीन युग
उद्गम से विलय के
बीच
निरंतर प्रवाहित
जलधारा के मध्य
मैं।
तुम्हारी प्रतीक्षा में
बहता रहा हूँ
किसी अर्पित दिये की तरह
मात्र तुमसे
पुनः मिल पाने की आस लिए
मैं जन्म से ही
लड़ता रहा हूँ
जल के इन थपेड़ों से
हवा के झोंकों
और कभी
घाट के मुँडेरों से
और अब
जब कि उद्गम बहुत पीछे छोड़ आया हूँ
और हूँ विलय के बहुत निकट
क्या तुम बता सकोगे
कि तुम मुझे कब मिलोगे-
मेरे बुझने से पहले
या कि., बुझने के बाद?
एक बार फिर माटी से सना
धरती की कोख से उपजा हूँ
एक पौधे की शक्ल में।
मेरे शरीर पर उगे काँटे
मेरे अपने नहीं
अपितु चिरकाल से
चुभोये जाते रहे
समझ के ठेकेदारों के नश्तर हैं
जो अब बन गए हैं
शरीर के अभिन्न अंग।
इन काँटों के बीच खिला हूँ
एक पुष्प बनकर
और शायद पहुँची होगी
प्रतीक्षा की गंध तुम तक भी
और अब जब की
काँटों के घाव चुभने लगे हैं
और निकट है मेरा विलय,
क्या तुम बता सकोगे
कि तुम मुझे कब मिलोगे-
मेरे मुरझाने से पहले
या, कि मुरझाने के बाद?
देश और काल की
तमाम सीमाओं को पार कर
लेता रहा हूँ श्वास।
इस दूषित और दुर्गंध परिवेश में
बदलता रहा हूँ करवटें
इन चीथड़ों और बदबूदार टूटे खटोलों में
और भूनता रहा हूँ आग के ऊपर
अधपके माँस की तरह
और अब
जबकि
शरीर का मांस भी
अलग होने लगा है
इन टूटी हड्डियों से।
क्या तुम बता सकोगे
कि तुम मुझे कब मिलोगे।
मेरी श्वासों के चलते रहने तक
या कि श्वासों के रुक जाने के बाद?
९ नवंबर २००९
|