अनुभूति में
आर पी शुक्ल की रचनाएँ-
छंद मुक्त में-
किराये के कंधे
पाँव के निशाँ
प्रतीक्षा के तीन युग
अंजुमन में-
अपनी किस्मत
छोड़कर गाँव
हाइकु में-
दस हाइकु |
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किराये के कंधे
दे दिए कंधे उनको
एक किराये के मकान की तरह
जैसे चाहो रहो, जो चाहो करो
खरोंच दो दीवारें
तोड़ डालो फ़र्श
बना दो खंडर उस इमारत को
जिसे गढ़ा था कुदरत ने
किसी ख़ास मक़सद से
कंधों पर बैठा शख़्स
कभी अल्ला-हो-अकबर
तो कभी
हर-हर महादेव के नारे लगाता है
कभी कुरआन
तो कभी गीता का पाठ करता है
इस शोर में
अब अपनी ही बात सुन नहीं पाता हूँ
थक चुका हूँ
झुक गए हैं, कंधे शायद
वह लोग
जो थे सवार कंधों पर
अब जाने को हैं
किसी और कंधे की तलाश में
भाई मेरे
मेरी भूल तुम मत दोहराना
उन कमज़र्फों के इरादों को
कभी सफल मत होने देना
मत देना कंधों को
किराये के मकान की तरह
अपनी आवाज़ को
कभी बेदम न होने देना।
९ नवंबर २००९
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