मेघा बरस बरस अंबर
से
मेघा बरस बरस अंबर से
धरा की आकुल
प्यास बुझाए।
झिमिर-झिमिर झरे जलकण में देकर
सब कुछ रिक्त हो जाए।
ऐसे ही जीवन के ये क्षण,
पल-पल परहित में घट जाएँ।
सरिता का ज्यों सुधा सम नीर
सींच-सींच कूल सरसाए।
लहरों में बिखर-बिखर कर
सकल निधि अर्पित कर जाए।
ऐसे ही जीवन के ये क्षण
पल-पल परहित में घट जाएँ।
जैसे उपवन का खिलता फूल
मधु सौरभ का
दान दे जाए।
पाँखुर-पाँखुर में झरकर
पुलकित रजकण में मिल जाए।
ऐसे ही जीवन के ये क्षण
पल-पल परहित में घट जाएँ।
स्वर्णिम तन ज्यों दीपशीखा का
गहन
तिमिर को हर जाए।
उजियारा भर कण-कण में
स्वयं उसी में घुल जाए।
ऐसे ही जीवन के ये क्षण
पल-पल पर-हित में घट जाएँ।
जैसे प्रभात की रवि-रश्मियाँ
नव आशा की
ज्योति जलाएँ।
मंद-मंद स्वयं तप-तप कर,
नीरव साँझ में ढल जाएँ।
ऐसे ही जीवन के ये क्षण,
पल-पल पर-हित में घट जाएँ।
16 मार्च 2007
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