अनुभूति में
राजेन्द्र चौधरी की रचनाएँ-
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पुनरावृत्ति
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मुक्तक
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अपनों के हाथों
कैकेयी की
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पुनरावृत्ति
ना कोसो समय को, ना यूँ छटपटाओ,
जो हर युग में हुआ हैं वही हो रहा है।
भूख के पेड पर आदमियत की गठरी,
यहाँ टाँग कर आदमी सो रहा है।
ना कोसो समय को
सतयुग में भी
हरिश्चन्द्र के सत्य को अपमान उठाना ही पड़ा।
और पत्नी को चीर में कफनाये हुए बेटे की लाश से,
शमशान का महसूल चुकाना ही पड़ा।
और त्रेता में
मां ने बेटे को बनवास दिलवाया,
दुख के क्षणों में
पति के साथ मारी मारी घूमी सीता
और सुख आने पर
उन्हीं चरणों में स्थान न मिल पाया।
लव-कुश का पालन वाल्मीकि आश्रम में हो रहा है।
ना कोसो समय को
द्वापर में
गुरू दक्षिणा में मांगा गया एकलव्य का अंगूठा,
और मां के चरित्र से
एक भाई से दूसरे भाई का रिश्ता टूटा।
द्रौपदी एक नहीं, पांच पतियों को वर लायी,
फिर भी भरे दरबार में
उनसे उसकी इज्जत न बच पायी।
षडयन्त्रों के चक्रव्यूह में फंसा अभिमन्यु,
अपना अस्तित्व खो रहा है।
ना कोसो समय को
फिर यह तो कलयुग है
मशीन से मशीन का नाता है,
आदमी से आदमी का रिश्ता नहीं
क्योंकि उनका पेट आडे आता है।
पेट के भूगोल में
नैतिकता के पहाड़ रेगिस्तान हो गये हैं,
और जहाँ आदमी आदमी से जुड़ता था
वे वन्दनीय देवालय अब कब्रिस्तान हो गये हैं।
सोचता हूँ
क्या शिव अब भी जिन्दा हैं?
अगर हैं
तो अपना शंकर खो रहा है।
ना कोसो समय को, ना यूँ छटपटाओ
जो हर युग में हुआ है, वही हो रहा है।
भूख के पेड़ पर आदमीयत की गठरी,
यहाँ टाँग कर आदमी सो रहा है |