अनुभूति में
राजेन्द्र चौधरी की रचनाएँ-
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मुक्तक में-
मुक्तक
कुछ मुक्तक और
अंजुमन में-
अपनों के हाथों
कैकेयी की
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मुक्तक
अब मील के पत्थर पे भी स्र्कती
नहीं नजर
रफ्तार के बीमार को आराम चाहिये।
जो चांद और चातक को क्षितिज पर मिला गये
बेनाम वे रिश्ते हैं उन्हें नाम चाहिये ।
मुद्दत से उजाले तो कौरवों के साथ हैं
जयद्रथ की पराजय के लिये शाम चाहिये।
जीवन की झाडियों से जो अनुभव ने चुने हैं
ये बेर हैं शबरी के इन्हें राम चाहिये।
आदर्श के संकल्प की संजीवनी देता था जो
आज के माहौल में वो शख्स खुद बीमार है।
मार डाला जब से उसने मन का जीवित आदमी
भीड़ उसको देवता कहने को अब तैयार है।
ऊँचे महलों से जरा सा फासला रख कर चलो
पत्थरों की छत है इनकी काँच की दीवार है।
वो कागजी दौलत के घर में कैद क्या रह पायेगा
जिस आदमी के हौंठ पे सच्चाई का अंगार है।
हम दिल के खंडहरों का इक तन्हा चराग हैं
जो हामी थे अन्धेरों के आज तारे हो गये।
बह लेते जिनसे लग के वो काँधे नहीं मिले
आँसू हमारी आँख के यूँ खारे हो गये।
जो इन्सान को इस दौर के काबिल नहीं रखते
होशो हवास में वो गुनाह सारे हो गये।
इन्सानियत, खुद्दारी, मुहब्बत, रहमदिली
दिल को हमारे रोग कितने सारे हो गये।
जीवन के उजालों की तपिश ने सुखा दिया
वरना हमारी आँख में पानी तो बहुत था।
चाहत को भी जिस्मानी जरूरत बना दिया
वरना तो दिल का दर्द निशानी को बहुत था।
सदियों से कृष्ण पार्थ का रथ हाँक रहे हैं
वरना अकेला कर्ण कहानी को बहुत था।
आँखों में माँ के दूध की कीमत नहीं रही
वरना जलियांवाला बाग निशानी को बहुत था।
मैं इस दौर में तहजीब का ढहता मजार हूँ
शीशे के मकानों से पुकारा ना कीजिये।
अपनों से पाये जख्म जो ताजा हैं वो अभी
फिर अपनेपन की बात दुबारा ना कीजिये।
सच्चाइयों के शव को भी मिलता नहीं कफन
ईसा को सलीबों से उतारा ना कीजिये।
मेरी तरह हर भीड में तन्हा ही रहोगे
इन्सान बन के उम्र गुजारा ना कीजिये।
जिनके चेहरे के खिलते कँवल हैं यहाँ
उनके पाँव तले दलदलें हैं बहुत।
कौन माझी पे अपने भरोसा करे
आज साहिल पे भी जलजले हैं बहुत।
राजनीति की चौसर पे आदर्श हैं
माँ के सीने मे यूँ हलचलें हैं बहुत।
दिल की दहलीज पर पेट की आग से
संस्कारों के शव कल जले हैं बहुत।
हम रिसाले तरक्की के पढते रहे,
वर्क गीता का लेकिन फटा ही रहा।
झूठ खंजर चलाता रहा सत्य पर,
हमको मन्त्र अहिंसा रटा ही रहा।
सारी वसुधा को परिवार कहते रहे,
घर का आँगन हमारा बँटा ही रहा।
दूर निर्धनता अभिलेख में हो गयी,
द्वार का टाट लेकिन फटा ही रहा।।
दोस्ती के गुलाबों में लिपटी हुई,
दुश्मनी की मिली हमको सौगात थी।
अर्घ्य देना पडा केक्टस को यहाँ,
सभ्यता की यह शहरी शुस्र्आत थी।
चाँद रोटी सा हमको चिढाता रहा,
आप कहते हैं पूनम की यह रात थी।
सिर्फ सांपों को विषधर समझते थे हम,
आदमी से न जब तक मुलाकात थी।।
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