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अपनों के हाथों

अपनों के हाथों जब तलक नश्तर नहीं मिलते
हम आदमी से आदमी बन कर नहीं मिलते

ऊँचाइयों की होड में प्राचीर ही प्राचीर हैं,
इस शहर में नींव के पत्थर नहीं मिलते।

आदमी की आस्तीनों में अधिक महफूज़ हैं,
इसलिए जंगल में अब अजगर नहीं मिलते।

अब नज़र से जिस्म छिल जाने का खौफ है,
आजकल पोशाक में अस्तर नहीं मिलते।

पीडा के पाँव में यहाँ घुंघरू हैं इसलिए,
दर्द की वाणी को अब अक्षर नहीं मिलते।

पंख उनके बुझती शम्मा भी जला देती है जो,
बालिश्त भर का फासला रख कर नहीं मिलते।

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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