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अनुभूति में राजेंद्र "अविरल" की
रचनाएँ -

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हास्य-व्यंग्य—
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कविताओं में—
पिता
बाबा
बिटिया पतंग उड़ा रही है
मैं जनता हूँ
हे ईश्वर

 

बिटिया पतंग उड़ा रही है

ऐ दुनिया, ज़रा ठहरो,
बिटिया पतंग उड़ा रही है. . .
उम्मीदों की डोर बँधी जो,
रंग बिरंगी हवा में उड़ती
पतंगें उसे ललचा रही हैं।
इसीलिए तो, शायद आज
बिटिया पतंग उड़ा रही है।

घर में पिता के हो स्वच्छंद
निर्मल कोमल, गढ़ रही छंद
भावी भविष्य के सपनों को
पल-पल ही बुनती जा रही है
बिटिया, पतंग उड़ा रही है. . .

घनघोर घटाएँ हैं नभ में,
बिजली भी चमचम चमक रही
तूफ़ानों पर हो सवार
सब पर ही छाती जा रही है
बिटिया पतंग उड़ा रही है. . .

जो उड़ा रहे अहं की खातिर
कुछ कुत्सित से पतंगबाज़
हर पल उनसे वो बचा रही है
बुरा औ अच्छा पचा रही है
बिटिया पतंग उड़ा रही है. . .

लो कट गई पतंग, ना हुई निराश
आशा की ठंडी छाँव तले
फिर नई पतंग वो ला रही है,
पुलकित हो, फिर से आ रही है,
बिटिया पतंग उड़ा रही है. . .
ऐ दुनिया, ज़रा ठहरो,
बिटिया पतंग उड़ा रही है. . .
हाँ. . .बिटिया पतंग उड़ा रही है. . .

24 सितंबर 2007

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