सपने में और बाहर
तुम
1
मैं चाहता हूँ
टूट जाओ तुम
सुनहरे सपनों की तरह
ताकि बार-बार तुम्हें देख पाने की चाहत
उभरे मेरे मन में
देखता हूँ तुम्हें रोज़
दिखते हो तुम वैसे ही
चलती-फिरती प्रस्तरप्रतिमासी
न जाने कौन-सी बात है
एक ऊब से भर गया है मन
सपने में देखते हुए तुम्हें
कभी नहीं ऊबा मेरा मन
सपनें के टूटने के बाद
चाहता था मैं कि काश
सदा तुम होते पास
अब जबकि तुम
सदा सामने ही रहते हो
कुछ तो बात है कि मैं
पुनः देखना चाहता हूँ तुम्हें
सपने में
2
न जाने क्यों
अब सपने में
तुम नहीं आते
मेरे चाहने पर भी
3
कहा करता था मैं तुम्हें
मत दिखाओ मुझे सपने
फिर भी देखता था मैं सपने
और सपने में तुम्हें
क्या सचमुच सपना
तुम्हीं दिखाते थे
या कि
मैं ही देखना चाहता था तुम्हें
सपने में
तथ्य और सत्य जो भी हो
सपने देखना
और सपने में तुम्हें देखना
कितना भिन्न था
तुम्हें इस तरह सामने देखने से
4
जान पाया हूँ अब मैं
आँखें बंद करके देखने
और आँखें खोलकर देख पाने का
गुणात्मक भेद
16 मार्च 2007
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