समय की पीड़ा
1
देखते हुए भी नहीं देखना
एक बात है पर
नहीं देखते हुए भी देखना
धृतराष्ट्र हो जाना है
पास और दूर
मैं और तुम
राष्ट्र और धर्म
सबके लिए ख़तरनाक है
2
हज़ार विषदंत होते हैं
महत्त्वाकांक्षा के
जन्म देते और फैलाते हैं जो स्वार्थपरता को उसी मात्रा में
परहितकथा क्लासिक वाङ्मय की
एक कथा भर बनकर रह जाती है
विषस्रोत का उद्भव
और फैलाव उसका वातावरण में
अनायास नहीं होता कभी
पर सायास ऐसा करने वाले
नहीं सोचते कि
कहाँ रखेंगे वे अपनी नाकों को
धरती और आकाश सबको
विषाक्त करके वे
जीएँगे कहाँ
लगता है ख़त्म हो गई है
उनकी जिजीविषा
और जीवन से भी बड़ी हो गई है
उनकी महत्त्वाकांक्षा
डार्विन ने बहुत पहले ही कहा था
जीएँगे फ़िटेस्ट ही
पर फ़िटेस्ट होने और रहने का ख़याल व उद्यम
उनसे क्या-क्या करवाते हैं
यह यक्षप्रश्न लहूलुहान होकर भी
उनसे उत्तर चाहता है
मनुष्य होने तक का हिसाब वे भूल जाते हैं
फिर वे नहीं समझ पाते कि
फ़िटेस्ट प्राणी और फ़िटेस्ट मनुष्य होने में
कितना फ़र्क है
तमाम मूल्यों की बलि चढ़ाकर वे
क्या रह जाते हैं
कौनसा विकास कर रहे हैं
किस तरह का स्वर्णयुग ला रहे हैं
क्या अतीत के गर्भ से इसका उत्तर निकलेगा
या आने वाली सदी कुछ कहेगी
या फिर वर्तमान का समय ही
साक्षी बनकर कुछ कहेगा
कवि तो गीत गाता जा रहा है
हवाओं में मिश्री घुल रही है
चिंता केवल मात्रा और दर की है
समय के साथ यदि कुछ नहीं सँभला
तो कवि को बनना ही पड़ेगा
नीलकंठ!
16 मार्च 2007
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