मेरे शब्दों की सीमा
ओ सदय हृदय
ओ आशुतोष
मैं कैसे तुमको दूँ प्रबोध।
ओ मृगनयनी
ओ सुरा-ग्रीवा
ओ सिंह कटि
ओ कुंभ धरा
ओ नाग केश
अभिराम वेश
स्मित में भासित पुष्पित प्रदेश।
ओ शुकनासा
प्रफुल्ल वदन
कमलिनी भुजा
ये हस्त कमल
कदली स्तंभ
पद राजहंस
गति में तेरी मदमस्त कंप।
तुम सौम्या हो
तुम धीरा हो
विधुल्लता
प्रणवीरा हो
कामिनी प्रिये
रति रानी तुम
संजीवनी जीवनदायिनी तुम।
तुम नव्या हो
नवनूतन तुम
ओ प्रियंवदा
मनभूषण तुम
तुम सरस्वती
ओ शुभ्रगात
ओ उष:काल कर नव प्रभात।
तुम निशा रही
और शशि भी तुम
चहुँदिश फैली
चाँदनी भी तुम
इस कठिन दिवस की संध्या तुम।
हो शुकी तुम्हीं
हो कोकिल तुम
मन मस्त करे
वो मयूरी तुम
तुम ऋचा रही
और ऋतु भी तुम
भावना तुम्हीं यह कविता तुम।
तुम वर्षा हो
और सविता तुम
यह नीति तुम्हीं
मन प्रीति तुम
रजनी भी तुम्हीं
सपना तुम ही
कल्पना तुम्हीं
रागिनी तुम्हीं
वीणा तुम ही
भामिनी तुम्हीं
हो जया तुम्हीं
कामिनी तुम्हीं
कितने नामों से
जानूँ मैं
मेरे शब्दों की सीमा तुम।
९ जून २००६ |