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कब तक फिरोगे
भटकते मुस्कराते फूल और
खिलखिलाते हुए बच्चे,
तुम्हें भी अच्छे लगे होंगे।
महकती बगिया और हँसती हुई दुनिया,
कुछ ऐसे ही सपने तुम्हारे मन में भी पले होंगे।
तुमने भी रखे होंगे पाँव उस राह पर,
जो नगर की ओर जाती है।
तुमने भी गढ़ी होगी वह बांसुरी,
जो जीवन के मधुर संगीत सुनाती है।
फिर क्या हुआ ऐसा कि
तुम्हारे बाग़ के फूल-
तुम्हारे हाथों ही मसले गए,
वह स्वर्ग-सी दुनिया और-
वो खिलखिलाते हुए बच्चे,
सब तुमसे ही छले गए।
क्यों मुड़ गई जंगल कि ओर,
नगर की वह राह।
क्यों सुनाई देती है तुम्हारी बाँसुरी से,
पीड़ित जीवन की कराह।
अपनी अंतरात्मा की आवाज़ को,
कब तक रहोगे अनसुनी करते।
अपने ही कन्धों पर अपनी लाश लेकर,
अट्टहास करते,
कब तक फिरोगे भटकते,
कब तक फिरोगे भटकते।
२ फरवरी २००९ |