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अभिशप्त
मेरे अंधेरों के वर्क़ जो पलटे,
उस सूरज को ढूँढना मुमकिन नही.
मोतियों के भ्रम में अब नही चुनता
मैं आँसुओं के बूँद,
जुगनुओं की ताप से कोई फसल पकती नही।
मुझे फिक्र नही अब आईने की खरोंचों की,
मेरे हाथ के घावों का कोई मरहम नही।
मैंने मिला दिया है ज़हर उसकी जड़ों में,
जिस पेड़ पर उगते थे सपनों के फूल,
अब मेरी नींदों में कोई खलल नही।
अब तो बस इंतज़ार है खत्म होने का,
इस नींद से उस नींद तक का सफर।
२ फरवरी २००९ |