अनुभूति में पंखुरी
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आरोपित आवाजों की कहानी
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आरोपित आवाज़ों की कहानी
सब नैसर्गिक नहीं है
प्राकृतिक
चीखों में मेरी
खुद से उपजी आवाजें नहीं हैं ये मेरी
मेरी सोच नहीं है
खुद ब खुद, नहीं पहुँची मैं
इन ध्वनियों तक
न ध्वनियों तक, न अपशब्दों तक
न पहले दिन की अफरातफरी में
उस किसी और की अ अ मेरी थी
न उसके बाद की
मेरी अपनी आ आ मेरी थी
बताकर पहले दिन कि कमी थी
कुछ आवाज़ में मेरी
अंदाज़ में मेरी
ज़िन्दगी जीने के आगाज़ में मेरी
तर्क मेरा कटता था
पर कैसे
कसौटी पर उनके
फिर ए ए का आलाप आया
कि वह क्लास का अव्वल नंबर था
फिर उस कैफेटेरिया की ऊपरी मंजिल से आती
उ उ की सरगम में
फिर हर कदम पर
साथ चलते सेल फ़ोन की राजनीति में
संगीत बिछाया गया
जाल की तरह
और डो रे मी फा सो ले टी की स्केल पर
मेरी ज़िन्दगी संगीत बनकर
छू मंतर हो गयी
हवा हो गयी
लिखी और तराशी जाने वाली औरों के द्वारा।
६ जुलाई २०१५ |