अनुभूति में
निर्मला गर्ग की रचनाएँ
छंदमुक्त में-
चाँदनी चौक
जिंदगी का नमक
धन्यवाद से कुछ ज्यादा
पृथ्वी खोलती है पुराना अलबम
मैं छोटी बढ़ई |
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मैं छोटी बढ़ई
मैं बढ़ई होना चाहती थी
कितना रोमांचकारी होता है तख़्ते पर आरी चलाना
यह ख़याल मुझे कहाँ से आया?
शायद बाई जूई की किताब पढ़ते हुए
हालाँकि उसमें बढ़ईगिरी का ज़िक्र तो था नहीं
किसी पक्षी के बारे में कुछ था
मुझे याद आया कठफोड़वा
दरभंगा में बाड़ी में देखा था
दिल्ली आने के बाद तो इन सबकी गुंजाइश बची नहीं
ढक-ढक
कठफोड़वा वृक्ष के तने में छेद कर रहा था
आरी जैसी थी उसकी लंबी चोंच
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय
बड़े कवि गद्यकार थे
पर बढ़ई भी कोई कम न थे
अपने अंतिम दिनों में बनाया उन्होंने रहने के लिए
पेड़ पर कमरा
देखने आए
कवि पत्रकार
चिंतक नाटककार
इतिहासकार दार्शनिक
मैं छोटी बढ़ई होती
बच्चों के लिए बनाती
छुक-छुक गाड़ी
सुग्गा
टोप लगाए फौजी
खिलौने विहीन बचपन में उनसे कैसी रौनक आती!
१ अप्रैल २००२
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