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उम्र का कतरा-कतरा

पहचान चुका हूँ बदनीयत आदमी को
देख रहा हूँ छल-बल का ताण्डव
योग्यता पर प्रहार तड़पते परिश्रम को
फिर भी ताल ठोंक रहा हूँ ।
मैं जानता हूँ नसीब कैद, हाथ तंग है
योग्यता नही श्रेष्ठता का दबदबा है
पुराने घाव का जानलेवा दर्द है
रात के अँधेरे की पक्षी की तरह
उजाले में रास्ता तलाश रहा हूँ।

मैं जानता हूँ
भेद-वृक्ष की जड़ें उखाड़ना कठिन है
समुद्र के पानी को मीठा करने की तरह
फिर भी सम्भावना की आक्सीजन पर
उम्र का कतरा-कतरा कुर्बान कर रहा हूँ
मानता हूँ अदना हूँ विशाल मीनारों के सामने
आदमी होने का सुख नही पा सकूँगा अकेले
शोले तो सुलगा सकता हूँ, ऊँच-नीच की जमीन पर
कैद नसीब के आँसू से अस्तित्व सींच सकता हूँ

मानता हूँ बूँद-बूँद से सागर भरता है
तिनके-तिनके से बनती है शक्ति,
आती है क्रान्ति, झुक जाता है आसमान
आदमीयत के फिक्रमंद यही कर रहे है
मैं भी उम्र का कतरा-कतरा कुर्बान कर रहा हूँ

मानता हूँ उम्र का मधुमास सुलग रहा है
सुलगता मधुमास बेकार नही जायेगा
करे नसीब कैद,चाहे जितना कोई बोये भेद,
मुस्कराये षोशण के खूनी टीले पर बेखौफ
आदमी होने का सुख मिलेगा,आदमियत मुस्करायेगी
ऐसे सुख के लिये आजीवन,
उम्र का कतरा-कतरा कुर्बान करता रहूँगा।

६ सितंबर २०१०

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