अनुभूति में
नंदलाल भारती
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चैन की साँस
भय है भूख है नंगी
गरीबी का तमाशा खिस्सों में छेद कई-कई
चूल्हे गरमाता है आँसू पीकर
आटा गीला होता है पसीना सोखकर।
कुठली में दाने थमते नही
खिस्से में सिक्के जमते नही
स्कूल से दूर बच्चे भूख-भूख खेलते
रोटी नही गम खाकर पलते
जवानी में बूढे होकर मरते
कर्ज की विरासत का बोझ आश्रित को देकर।
कैसे कैसे गुनाह इस जहाँ के
हाशिये का आदमी अभाव में बसर कर रहा
धनिखाओं की कैद में धन तड़प रहा
गोदामों में अन्न सड़ रहा
गरीब अभागे बदल रहे करवटे भूख लेकर।
कब बदलेगी तस्वीर कब छँटेगा अधियारा
कब उतरेगा जाति-भेद का श्राप
कब मिलेगा हाशिये के आदमी को न्याय
कब गूँजेगा धरती पर मानवतावाद
कब जागेगा देश सभ्य समाज के प्रति स्वाभिमान
ये है सवाल दे पायेगे जबाव धर्म-सत्ता के ठेकेदार
काश! मिल जाता,
मैं और मेरे जैसे लोग जी लेते
चैन की साँस पीकर।
१४ जून २०१० |