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प्रार्थना
मानव काश! प्रार्थना स्वीकार लेते
आदमी की चौखट पर दस्तक देते
वैसे जैसे ऋतुएँ देती है
विकार त्यागकर, कल्याण भाव से
फसलों, छोटे-बडे वृक्षो के मस्तक
पर।
चल हो या अचल, नर हो या पशु
सभी करते है स्वागत ऋतुओं का
ऋतुएँ नहवाती है नहछुआ
करती है प्रकृति का नव शृंगार
पोसती है जीवन अमृत बूँदे पिलाकर।
आदमी दूर आदमियत के अमृततत्व से
आदमी के रूप प्रभु के दूत हो
तुम्हारा आहवाहन है
आओ आदमी की दहलीज तक
गुमान की दहलीज लाँघकर
छा जाओ बसन्त की तरह।
हे आदमी आदमी के दिल पर बो दो
आदमियत के रिश्ते का सोंधापन
अभिषाप का बोझ ढो रहे
आदमी से लिपट जाओ वर्षा की बूँद बनकर
कुसुमित हो जायेगा आदमियत का सोंधापन।
हे आदमी प्रभु के दूत हो तुम
रेगिस्तान की तपती रेत नही
फैला दो बाहें कस लो दबे-वंचित आदमी को
जैसे राम ने भरत को कसा था बसन्त बनकर।
गवाह रहेगा वक्त तुम्हारे ईश्वरत्व का
काष तुम मेरी प्रार्थना स्वीकार लेते
अभिमान को भूलकर।
६ सितंबर २०१० |