अनुभूति में
नंदलाल भारती
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समता का अमृत
चक्रव्यूह टूट नही रहा है आधुनिक युग में
फैलती जा रही है जिन्दगी की उलझने
उलझनों के बोझ तले दबा-दबा
जीवन कठिन हो गया है।
उलझनो का तिलिस्म बढा रहा है
जीने का हौसला
दे रहा है हार पर जीत का संदेश
यही है उलझन की सुलझन
लेकिन आदमी द्वारा रोपित चक्रव्यूह को
जीत पाना कठिन हो गया है आधुनिक युग में।
उलझने जीवन की सच्चाई है
चक्रव्यूह आदमी की साजिश
एक के बाद दूसरा मजबूत होता जाता है
ताकि कायनता का एक कुनबा बना रहे
दोयम दर्जे का आदमी
सच उलझने सुलझ जाती है
आदमी का खड़ा चक्रव्यूह टूटता नही
करता रहता है अट्हास जाति-धर्म के भेद की तरह।
चक्रव्यूह में खत्म नही होता इम्तिहान
बढती जाती है मानवीय समानता की प्यास
चक्रव्यूह के साम्राज्य में भी
मानवता के झुरमुठ में झाँकता रहता है समता का अमृत,
यही तोडेगा चक्रव्यूह का तिलिस्म एक दिन।
६ सितंबर २०१० |