फटी कमीज़
फटे-हाल देखा जब उसको, मन मेरा
गया पसीज।
भरी भीड़ से मोहलत माँगे, उसकी फटी कमीज़।
बाज़ारों में नये-नये परिधान
बिका करते हैं।
उसके पास थे थोड़े पैसे ले ली फटी कमीज़।
तन ढकना ही वस्त्रों का बस कर्म
हुआ करता है।
सुन्दरता से कर्म निभाती उसकी फटी कमीज़।
सुबह-सवेरे इसे पहनकर रोज़
कमाने जाता।
दाल-रोटी का साधन बन गई उसकी फटी कमीज़।
सर्दी हो, गर्मी हो, चाहे हो
मौसम बारिश का।
उसके तन की रक्षा करती उसकी फटी कमीज़।
धीमे-धीमे धोना इसको और न फट
जाये।
प्राणों से भी प्रिय लगती है उसको फटी कमीज़।
नंगे बदन काम पर जाता, लोग भीख
देते हैं।
स्वाभिमान की रक्षा करती, उसकी फटी कमीज़।
उसकी फटी कमीज आपकी, मेरी भी हो
सकती है।
खुदा ना करे पड़े पहनना हमको फटी कमीज़। |