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अनुभूति में ममता कालिया की रचनाएँ

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आज नहीं मैं कल बोलूँगी
किस कदर मासूम होंगे दिन
दीवार पर तस्वीर की तरह
पैंतीस साल
यह जो मैं दरवाज़ा

  यह जो मैं दरवाज़ा

यह जो मैं दरवाज़ा बंद करती हूँ भड़ाम
टीवी की आवाज़ चौबीस तक ले जाती हूँ
चटनी पिसने के बाद भी सिल पीसती रहती हूँ कुछ देर
रसोई में कलछी रखती हूँ खटाक
बाथरूम में बालटी टकरा जाती है नल से
ग्लास अक्सर फिसल कर टूट जाते हैं मुझसे।
यह मेरे अंदर की भाषा-शैली है
इसकी लिपि और लपट
मेरे जीवन में दूर-दूर तक फैली है।
हमेशा ऐसी खुरदुरी नहीं थी यह।
इसकी एक खुशबू थी
कभी बगिया में
कभी बाहों में
रोम-रोम से निकलते थे राग और फाग
कभी आँखें जुबान बन जातीं
सम्बोधित रहतीं तुमसे तब तक
जब तक
तुम
चुम्बनों से इन्हें चुप न कर देते।

 

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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