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जयघोष
आक्रोश का सागर हृदय में- शौर्य की अभिव्यक्ति तन पर,
बढ़ चले लेकर तिमिर में- ज्ञानोज्वलित ज्वाला निरंतर,
राष्ट्र दीक्षा, राष्ट्र वीक्षा, राष्ट्र रक्षा के लिए -
मृत्यु का करके वरण फिर, हैं अमर वे वीर मर कर।
था शिला-सा वक्ष जिनका, लौह-सी जिनकी भुजाएँ,
हुँकार से जिनकी थी कंपित, अंबर धरा और दस दिशाएँ,
भीम-भाँति वे गदाधर, पार्थ के से वे धनुर्धर।
मृत्यु का करके वरण फिर, हैं अमर वे वीर मर कर।
राष्ट्र के संग्राम का जब नाद दिग्घोषित हुआ,
हिल उठा ब्रम्हांड सारा, काल भी विचलित हुआ,
राष्ट्र रक्षा का समर था मृत्यु का जैसे स्वयंवर।
मृत्यु का करके वरण फिर, हैं अमर वे वीर मर कर।
24 मार्च 2007
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