इक आग लगा ली है
खोया सुकून दिल का रिश्तों को निभाने में
इक आग लगा ली है इक आग बुझाने में!
यों इम्तहान मिल तो गए हैं मंज़िलों पे मंज़िलें
दिखते नहीं हैं रास्ते अब अपने ठिकाने में!
जो आह भरा करते थे हर ज़ख़्म पे तब मेरे
उनको भी मज़ा आने लगा मुझको सताने में!
लगता गुनाह-सा है ये इश्क़-ओ-इबादत भी
इक शर्म-सी आती है अब आँख मिलाने में!
इक जाम मयस्सर ना था, थे क़तरों के भी फांके
शब-ओ-शाम गुज़रती है अब पीने-पिलाने में!
धड़कन नहीं क्यों बढ़ती अब तेरी सदा सुनके
मामूली तक़ल्लुफ़-सा है क्यों तेरे बुलाने में!
ख़ुशियों के कद्रदानों मुझको मुआफ़ करना
कुछ दर्द-सा आने लगा है मेरे तराने में!
24 मार्च 2007
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