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आह्वान
परिधि है जिसकी अपारिमित, सीमाएँ जिसकी असीमित
नाम भारतवर्ष है इस धरा के वरदान का!
प्रतिध्वनित हो हर दिशा में गीत गौरवगान का!
ली कभी प्रचंड ज्वाला अग्रगामी मार्गदर्शक,
और कभी शीतल-सी ज्योति प्रेमप्रेरक, पथप्रदर्शक,
लौहभुज कुंदन हृदय मुख मुद्रा जिनकी लोमहर्षक,
वे बने फिर प्रबल प्रहरी राष्ट्र के अभिमान का!
संस्कृति और सभ्यता हर नर में है विकसित यहाँ,
सादगी और सौम्यता हर नारी में सुरभित यहाँ,
पश्चिमों-सा दंभ थोथा न पाओगे किंचित यहाँ,
और फिर यहाँ तो पात्र है हर एक मनुज सम्मान का!
प्रकृति पर श्रद्धा हमारी और अटल विश्वास द्विज पर,
माँ भारती के पूत हैं हम क्यों न हो फिर गर्व निज पर,
जयघोष की अनुगूँज जिसकी धरती,
गगन में और क्षितिज पर,
आओ मिलकर प्रण करें इस राष्ट्र के उत्थान का!
24 मार्च 2007
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