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अनुभूति में अजित कुमार की रचनाएँ-

कविताओं में-
ऊसर
कविता जी
नीम बेहोशी में
शहर के बीच
सभी
समुद्र का जबड़ा

संकलन में-
धूप के पाँव- उमस में

  कविता जी

कल मैंने कविता को लिखा नहीं
कल मैंने कविता को जिया. . .

बहुत दिनों बाद
लौटकर घर आए बच्चों के साथ
बैट-बाल खेला,
पहेलियाँ बूझीं
कहानियाँ सुनीं-सुनाई
चाट खाई. . .

वह सब तो ठीक था
और
अपनी जगह ठीक-ठाक रहा
लेकिन यह ख़याल
कि इस तरह
मैंने कविता को जिया,
अपनी कविता जी को
कुछ ख़ास पसंद नहीं आया।

मुँह फुलाकर वे जा बैठीं
पुरानी पत्रिकाओं के ग़ट्ठर में
जिन्हें मैंने दो-छत्ती में धर दिया था
ताकि बच्चों की उछल-कूद के लिए
घर में तनिक जगह तो निकले।

बीते अनुभव से जानता हूँ-
छुट्टियाँ ख़त्म होंगी
बच्चे वापस चले जाएँगे
घोंसले में फैले तिनके समेटने के लिए
हमें छोड़कर. . .

कैरम की गोटें
स्क्रैबिल के अक्षर
देने-पावने के ब्यौरे
क्रेन की बैटरी. . .
जिन्हें हम सहेजेंगे ज़रूर

पर दो-छत्ती में रखी
पुरानी पत्रिकाएँ तो शायद
हमेशा के लिए
वहीं की वहीं रह जाएँगी. . .

रूठी हुई कविता जी
मनुहार के बाद
या
उसके बावजूद
- क्या पता!-
आएँ कि न आएँ!

9 सितंबर 2007

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