अनुभूति में अभिषेक
झा की रचनाएँ—
छंदमुक्त में—
चेहरे का सच
ठंड की ओट में
रौशनी के
उस पार
यादों की
परछाइयाँ
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यादों की
परछाईयाँ
इन सीढियों से उतरते हुए
यादों की कुछ पदचापें
वापस मेरी आँखों के सामने छा जातीं
और इन
इन शांत लम्हों में
कुछ कहने की चाह जगा जातीं
बारिश में
आलिंगन करती हुई एक बूँद
बदन को धीरे से चूमते हुए
जब दिल की हर धड़कन को छूती
तो
सामने उन पलों का
एक सुन्दर अक्स दिखता
जिनमें गीत रागों से भरे होते
और रोमानी यादें
बिना परदे की फिल्म पर चलतीं
लेकिन उस अक्स में गौर से
झाँको तो...
केवल बीते हुए कल के टुकड़े
तृप्त घावों का कारवाँ छोड़ जाते
इस खाली कमरे में बैठे
अँधेरे को
चीरती हुई कुछ लकीरें
उनको गिनता हुआ मेरा
खाली मन
जब कविता में बह जाता
तब बगल रखे तुम्हारे कपड़े
जो पिछली बरसात में छूट गए थे
पुरानी महक से भर जाते
अरे
इस बावरे मन का
साँस लेना मुश्किल हो जाता
साँसों की कमी तो तब भी थी अब भी है
बेचैनी तब भी थी अब भी है
गर कोई साथ नहीं
तो वो आस है
इस कसमसाहट भरे इंतज़ार में बैठी
मेरी पलकें जब बंद होतीं
इन अँधेरी पलकों में छुपकर भी
तुम्हारी यादें एक रौशनी सी छोड़ जातीं
२७ दिसंबर २०१०
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