अनुभूति में अभिरंजन
कुमार की रचनाएँ—
नई रचनाओं में—
तुम्हारी आँखों के बादलों में
बातें तुम्हारी
प्रिये...
मैं अनोखा हो गया हूँ
हाइकु में—
जाड़े का हाइकु¸ प्रियतमा के लिए¸ महानगर के
हाइकु¸ गाँव के हाइकु¸ संदेश
कविताओं में—
चालू आरे नंगा नाच
भस्मासुर जा रहा
हँसो गीतिक हँसो
होली बीती
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हँसो गीतिके हँसो
हँसो गीतिके हँसो
हँसो ऐसे जैसे हवा से हिलकर हँसते हैं
गुलमोहर के फूल।
हँसो ऐसे जैसे कोई अकेला बच्चा खुद में हो मशगूल।
हँसो ऐसे जैसे पहाड़ों से उतरकर हँसते हैं झरने।
हँसो ऐसे जैसे पूर्णिमा की रात हँसती हैं चंद्रकिरणें।
हँसो, गाय के ताज़ा दुहे दूध के फेन-सी हँसी।
हँसो, मन के सारे मलाल मिटा कुदरत की देन-सी हँसी।
हँसो, गीतिके हँसो।
इस तपिश में मानसून की शीतल फुहार की तरह हँसो
मेरे पतझड़ में बहार की तरह हँसो
नफ़रत में प्यार की तरह हँसो।
गीतिके हँसो।
हँसो, क्योंकि तुम हँसती हो तो
बोलती हैं
तुम्हारी आँखें।
हँसो, क्योंकि तुम हँसती हो तो डोलती हैं तुम्हारी साँसें।
हँसी तुम्हारे होंठों पर बाँसुरी-बजती हैं
तुम्हारे गालों पर सजती हैं गुलाल-सी हँसी।
बागों के बेख़बर झूले-सी झूलती हो तुम
और लचकती हैं हरी-हरी डाल-सी हँसी।
मैंने तुम्हारी हँसी को
तितलियाँ बन-बनकर उड़ते देखा है।
मैंने तुम्हारी हँसी को दूर जा-जाकर मुड़ते देखा है।
तुम हँसती हो तो मेरे दिल तक बनती है एक राह
और सहसा बिछ जाते हैं उसपर पुष्प भी अथाह।
पलकों-सी शर्मीली हैं, सपनीली
है तुम्हारी हँसी।
लहरों-सी गीली हैं, लचीली है तुम्हारी हँसी।
जाने कितने रंगों से बनी,
कितनी उमंगों में सनी है तुम्हारी हँसी।
प्रियतमे! सृष्टि में शायद सबसे हल्की, सबसे घनी है तुम्हारी
हँसी।
हँसती रहो अविरल
हँसती रहो छलछल
तुम्हारी हँसी पर अपनी नाव लेकर पार हो जाऊँगा मैं।
हँसती रहो चह-चह
हँसती रहो मह-मह
तुम्हारी हँसियाँ चुन-बुनकर हार हो जाऊँगा मैं।
प्रियतमे!
तुम्हें पाकर स्वयं को स्वीकार हो जाऊँगा मैं।
बसो मुझमें बसो पल-पल।
हँसो इतना हँसो हर पल।
१६ दिसंबर २००५ |