दस हाइकु
जाड़े
का हाइकु
जाड़े में भैया
धूप नरम दीखी
छाँव सरीखी।
प्रियतमा के लिए
प्रिये! रूपसि!
होठों पर तुम हो
नर्म धूप-सी!
महानगर के हाइकु
आबादी लाखों,
फिर भी वीरान ये
महानगर।
भीड़ है सब
कोई नहीं अपना
टूटा सपना।
ज़मीं भी नहीं
आसमान भी नहीं
बने त्रिशंकु।
बीच में कहीं
कहने को कमरे
धूप, न हवा।
आया सूरज
न आँगन, न छत
बालकनी पे।
बंद कमरे
बने हुए कातिल
मुक्त साँस के।
गाँव
के हाइकु
गाँव अब भी
करते हैं स्वागत
धूप हवा से।
संदेश
धूप औ' हवा
रखना बचाकर
असली दवा।
९ फरवरी २००६
|