बहुत प्यासे
मरुस्थल बहुत प्यासे
मरुस्थल हम, कोई गंगा न मिल पाई
उबलते आँसुओं से कब किसी की प्यास बुझ पाई
मथा जब सिंधु तो अमृत मिला सब
देवताओं को
मगर कुछ देवता ऐसे जिन्हें बनना था विषपाई
न जाने कौन-सा वैभव लिया था
कर्ज़ आँखों ने
समूची उम्र रोकर भी, हुई अब तक न भरपाई
जिए नित सर्पदंशों में, यही
चंदन की किस्मत है
घिसा जिन क्रूर हाथों ने, सुगंधों की सज़ा पाई
अंधेरे में नहीं भटके, हमारे
साथ थे हर क्षण
कभी कबिरा के दोहे तो कभी तुलसी की चौपाई!
३ अगस्त २००९ |