बहुत-बहुत मन था
बहुत-बहुत मन था, जीवन में हम भी
रचें पवित्र ऋचाएँ
हम भी लिखें गीत गोविंदम, विनय पत्रिकाएँ लिख जाएँ
सुख, उल्लास, हर्ष से वंचित
सपनों पर पीड़ा का पहरा
यही वजह है इन छंदों में अटी पड़ीं प्रोषितपतिकाएँ
संभव नहीं हुआ मनचाहा, कुछ भी
दिव्य-भव्य लिख पाना
लिखने बैठे तो लिख डालीं दुनियादारी की कविताएँ
जाने कितने गूँगे सपने मुखर
क्षणों की बाट जोहते
यह क्या कम है, हमने-तुमने लिख दीं इनकी करुण कथाएँ
पसरे हुए अंधेरे में यह दृष्टि
हुई विचलित कुछ ऐसी
अपने खाते में आ पाईं, ब्रह्मराक्षसों की पीड़ाएँ!
३ अगस्त २००९ |