आग अपनी
आग अपनी और उनकी रोटियाँ सिकती
रहीं
दूर तक पसरे धुएँ में पीढ़ियाँ घुटती रहीं
आग भी भरपूर थी, लेकिन कहीं
मजबूर थी
वायदों की ओस में चिनगारियाँ बुझती रहीं
दरख्तों की जड़ों को तो वे हिला
पाई नहीं
घोंसलों को तोड़कर कुछ आँधियाँ हँसती रहीं
देश में जो भी हुआ जनता तेरे
हित में हुआ
जुल्म की लाठी उठी या गोलियाँ दगती रहीं
कुछ नहीं होगा अगर सब 'एकला'
चलते रहे
है तभी तक जुल्म जब तक मुट्ठियाँ तनती नहीं।
३ अगस्त २००९ |