अनुभूति में
ठाकुरदास सिद्ध की रचनाएँ-
नयी रचनों में-
कहीं वो गजल तो नहीं
पा गया बंदूक
हर मरहले का
हर सितम पर मौन रहते
अंजुमन में-
ढह रहे हैं घर हमारे
बात ठहरे तो
मुस्कुराकर ले गया
स्वारथ के दलदल में
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स्वारथ
के दलदल में
स्वारथ के दलदल में चहुँदिश, मेरे-मेरे की ही रट है।
लेश मात्र भी प्रीत नहीं है, मन के घट में कड़वाहट है।
भूखे-नंगे श्वान सरीखे, मरते हैं तो मर जाने दो।
वाहन धन वालों का लेकिन, दौड़ लगा लेता सरपट है।
मानवता से नाता तोड़ा, हम हिन्दू-मुस्लिम बन बैठे।
गाँव-गाँव में, गली-गली में, मंदिर-मस्जिद की खटपट है।
हँसते महल, झोपड़े जलते, आहत होती है मानवता।
रक्त-पिपासु बनी दानवता, पीती खून गटागट घट है।
जो श्रम करते, भूखे मरते, मिलता नहीं निवाला सूखा।
भोग रहा वह वैभव सारे, रहा जन्म से जो लंपट है।
क़दम-क़दम बारूद बिछी है, हाथ-हाथ में है चिंगारी।
तुझ पर है, या मुझ पर है, या देश समूचे पर संकट है।
जब-जब भी पर्दा उठता है, देश समूचा भय से कंपित।
कहे 'सिद्ध' यह कैसा नाटक, नंगा नाच दिखाता नट है।
१ अप्रैल २०१६
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