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अनुभूति में सुलभ अग्निहोत्री की रचनाएँ-

अंजुमन में-
उसकी झरने सी हँसी
कुछ ऐसे सिलसिले हैं
पिघलते मत
मत वृथा व्यय कर इन्हें
हवा जब जोर की चलती है

'

पिघलते मत

पिघलते मत दिलों की धुंध ही पिघला तो दी होती
सुहानी भोर मन की देह पे बिखरा तो दी होती

प्रवाहित जान्हवी होती, सभी हिमखण्ड गल जाते
कि अपनी आँच से ये ज़िंदगी सहला तो दी होती

निगाहें आप की भी बदलियों सी आसमाँ पे हैं
कि अँजुरी भर ही पूँजी नेह की बरसा तो दी होती

ये मेरा मन सुहागन सा सँवर जाता - सँवर जाता
कि अपने प्यार की चूनर इसे पहना तो दी होती

वो अपनी रश्मियों की पालकी से भी उतर पड़ता
कि मेरे चाँद तक पाती मेरी पहुँचा तो दी होती

पतंगों से हवा में साथ बतियाते हुए उड़ते
जरा थमकर सखी, डोरी मेरी सुलझा तो दी होती

३ अगस्त २०१५

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