अनुभूति में
सुलभ अग्निहोत्री की रचनाएँ-
अंजुमन में-
उसकी झरने सी हँसी
कुछ ऐसे सिलसिले हैं
पिघलते मत
मत वृथा व्यय कर इन्हें
हवा जब जोर की चलती है |
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मत वृथा व्यय कर
इन्हें
मत वृथा व्यय कर इन्हें, कर
आँसुओं का संचयन
बीज हैं ये, क्रान्ति का होगा इन्हीं से प्रस्फुटन
नित्य चैराहे पे अब उपहास करती लाज का
वह चदरिया जो रही उसका सदा लज्जा-वसन
अपने ही सायों को निगला, दर्प इतना बढ़ गया
किसने चाहा राम! ऐसी दोपहर का आगमन?
कुछ प्रयोजन भी न था, विद्वेष भी कोई न था
पंखुरी नोची, मसल दी, राह चलते आदतन
जादुई सा स्पर्श कोई पाँव के व्रण भर गया
कर गयी थी पूर्ण अपनी पटकथा वरना थकन
हम गणित पढ़ते रहे श्रम की, न सीखे सूत्र ये
किस तरह विद्रोह के स्वर में मिलाते हैं स्तवन
टूट कर ये धूल में मिल जायें तो क्या फायदा
खोंट लें आहिस्ता से चल, आँख के नाजुक सपन
३ अगस्त २०१५ |