अनुभूति में
सुलभ अग्निहोत्री की रचनाएँ-
अंजुमन में-
उसकी झरने सी हँसी
कुछ ऐसे सिलसिले हैं
पिघलते मत
मत वृथा व्यय कर इन्हें
हवा जब जोर की चलती है |
' |
हवा जब ज़ोर की
चलती है
हवा जब ज़ोर की चलती है थोड़ा
थरथराती हैं।
मगर परछाइयाँ फिर अलगनी पर फैल जाती हैं।
न जाने कब से मैंने सूर्य को उगते नहीं देखा
सुनहरी भोर की किरणें क्यों अब मुझसे लजाती हैं?
अँधेरी क्यारियों में जब सुबह के फूल खिलते हैं
दरीचे खोल फिर से तितलियाँ पर फड़फड़ाती हैं
उधर केसर की क्यारी से हवायें बहती रहती हैं
नहीं पर लाज का वो झीना पर्दा लाँघ पाती हैं
कुछेक पर्दे हैं जिनका कोई भी मकसद नहीं होता
मगर उनको हटाते पीढि़याँ तक बीत जाती हैं
३ अगस्त २०१५ |