अनुभूति में
शादाब जफर शादाब की रचनाएँ-
अंजुमन में-
अचानक वो फिर
ऐसे कपड़ों का
कहूँगा रात को
किस के दम से रोशनी है
ज़ुबा पर हर किसी के |
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ऐसे कपड़ों का
ऐसे कपड़ों का अब तो चलन हो गया
जैसे शीशे में रक्खा बदन हो गया
अब ना सीता मिलेगी ना राधा यहाँ
थोड़ा थोड़ा सा पेरिस वतन हो गया
कैसे बच्चे शराफत से पालूँगा मैं
गुण्डा गर्दी का अब तो चलन हो गया
रो के सो जाये माँ बाप भूखे मेरे
मैं तो बच्चो में अपने मगन हो गया
घर में बेटी सियानी मेरे हो गई
सोच कर बूढ़ा मेरा बदन हो गया
बेच कर मैंने ईमाँ तरक्की तो की
मेरी नजरों में मेरा पतन हो गया
लोग 'शादाब' होंगे कहाँ से भला
जान सस्ती है महँगा कफन हो गया
२१ अक्तूबर २०१३ |