अगर भूले से
अगर भूले से आ जाती हवाएँ बन्द
कमरे में।
तो घुट कर मर नहीं पाती दुआएँ बन्द कमरे में।।
सहर की सुर्ख किरनों ने किया
महसूस शिद्दत से।
मुसलसल रात भर बरसी घटाएँ बंद कमरे में।।
सिवा मेरे न सुन पाया कोई कुछ
इस तरह मैंने।
ब-नामे-हिज्र तुझको दीं सदाएँ बंद कमरे में।।
जो अपने सख्त जुम्लों से करे
नंगा सियासत को।
वो पागल रात-दिन काटे सजाएँ बंद कमरे में।।
हवाओं! जर्द पत्तों को न छेड़ो
शोर होता है।
अधूरा ख़्वाब बुनती हैं, वफ़ाएँ बंद कमरे में।।
वो दोनों ही मुहज्ज़ब हैं, महर
ये बारहा देखा।
हुई हैं ज़ख्म आलूदा क़बाएँ बंद कमरे में।।
बचाना ग़ैर मुमकिन है मुझे
दस्ते अजल से तो।
वो क्यों 'सर्वेश' देते हैं दवाएँ बंद कमरे में।।
२२ दिसंबर २००८ |