रात दुल्हन सी सजी
रात दुल्हन सी सजी तो मन को मेरे
भा गई
दिल की धड़कन सो रही थी जागकर शरमा गई
एक सूनापन था मेरे
मन के कमरे में अभी
याद तेरे प्यार की कुछ चूड़ियाँ खनका गई
हमने सोने की अभी
तैयारियाँ भी की न थीं
भोर भी बीती न थी और शाम सम्मुख आ गई
मुझ पे कुछ कागज
के टुकड़े और दो एक शब्द थे
तेरी नज़रों की छुअन छूकर उन्हें महका गई
इस कदर गर्मी मिली सागर को
सूरज से कि फिर
एक बदली सी उठी पूरे गगन पर छा गई
कितनी मुश्किल से बचाया था रमा आँसू का जल
नैन की गागर को तेरी याद फिर छलका गई |