धूप का घर
धूप का घर है मगर हम फिर भी
आएँगे ज़रूर
छाँह में उसकी ये अपना तन जलाएँगे ज़रूर
आँधियाँ कहने लगीं उड़ते हुए
पक्षी से फिर
तुम उड़ो, लेकिन तुम्हें हम आज़माएँगे ज़रूर
आज ऐसे रूठ कर जाने न देंगे हम
तुम्हें
अश्क हो तुम, आज हम तुमको मनाएँगे ज़रूर
दूर से ही प्यार की छुअनों को
तुमसे माँग कर
रोज़, बेंदी की तरह उनको सजाएँगे ज़रूर
आज होंठों पर मेरे जो है
हज़ारों कहकहे
मुझको लगता है कि वो इक दिन रूलाएँगे ज़रूर
हर तरफ़ तूफ़ान है, भूचाल का
आतंक है
नींव की इंटों को हम फिर भी बचाएँगे ज़रूर
चाहे कितने भी ये आँसू आँख में
आते रहें
फिर भी हम होठों पे अपने मुस्कराएँगे ज़रूर
हम भले ही चोट खा बैठें मगर फिर
भी 'रमा'
बीच की दीवारों को इक दिन हटाएँगे ज़रूर
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