परबत के पैंताने
परबत के पैंताने पहुँचे, परबत के
सिरहाने भी
कहाँ-कहाँ तक ले जाते हैं अक्सर कई बहाने भी
हरा-भरा सागर लहराता, चंद
डोंगियों जैसे घर
महानगर के उस जंगल से बेहतर ये वीराने भी
जीवन का रस कहाँ नहीं है, जीने
वालों से पूछो
इसीलिए लगती हैं शायद चट्टानों अँखुवाने भी
गुमसुम-गुमसुम है वनराजी,
लहराती-गाती भी है
ग़म-सरगम को पहचानो तो होंगे कई घराने भी
दूर देश जा रहे पहाड़ों से पूछा
तो यों बोले
कदमों में राहें होंगी तो होंगे ठौर-ठिकाने भी
कौन कहाँ कब गिर जाएगा, इसका
कोई पता नहीं
कई बार तो गिर जाती हैं बड़ी-बड़ी चट्टानें भी
खो जाते हैं घर में रहकर, बाहर
खुद को पा जाते
पहचाने जाने लगते हैं अपने भी, बेगाने भी
शिमला-उमला मालरोड के माल-टाल
की क्या पूछो
उकसाती है जेब, जेब ही लगती है खिजलाने भी!
२३ नवंबर २००९ |