पत्थरों को आइना कैसे कहूँ
पत्थरों को आइना कैसे कहूँ,
सच तमाशाई बना कैसे कहूँ।
विषधरों को देवता तो कह दिया,
रहजनों को पासबाँ कैसे कहूँ।
बढ़ रही हैं दिन-ब-दिन
ग़ुस्ताखियाँ,
हर सितम को बचपना कैसे कहूँ।
बाड़ खुद खाने चली है खेत को,
आज बेबस हूँ मना कैसे कहूँ।
जब हुए नजदीक नजरें फेर लीं,
इस अदा को सामना कैसे कहूँ।
आँकड़ों से पूछ कर देखा बहुत,
मैं सिफर को सौ गुना कैसे कहूँ।
1 जुलाई 2007 |