पतझड़ को न देना तूल
और पतझड़ को न देना तूल फिर से,
मुसकुराएँगे चमन में फूल फिर से।
तुम न उपवन से अभी बाहर निकलना,
राह रोकेंगे उलझ कर फूल फिर से।
प्यास अब तक और शायद बढ़ गई है,
राह में उड़ने लगी है धूल फिर से।
आस के बादल भला कैसे बरसते,
बिजलियों में हो गए मशगूल फिर से।
कल हवन करते हथेली जल गई थी,
हो न जाए आज कोई भूल फिर से।
ठीक से चेहरे नज़र आते नहीं
हैं,
साफ़ कर दो आइनों की धूल फिर से।
1 जुलाई 2007 |